चाणक्य नीति
(1) ब्राह्मणों का बल है विधा , राजाओ का बल है सेना , वैश्यो का बल है धन , और शुद्रो का बल है सेवा यह चार स्तम्भ है भारत के जो किसी न किसी रूप में भारतीयों को मजबूती प्रदान करते है
(2) भगवान बुद्ध धर्म कहते हैं कि ब्राह्मण न तो जटा से होता है, न गोत्र से और न जन्म से। जिसमें सत्य है, धर्म है और जो पवित्र है, वही ब्राह्मण है।
(3) जो अकिंचन है, किसी तरह का परिग्रह नहीं रखता, जो त्यागी है, उसी को मैं ब्राह्मण कहता हूँ।,,,,,,,,,,,,भगवान बुद्ध
(4) कमल के पत्ते पर जिस तरह पानी अलिप्त रहता है या आरे की नोक पर सरसों का दाना, उसी तरह जो आदमी भोगों से अलिप्त रहता है, उसी को मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
(5) चर या अचर, किसी प्राणी को जो दंड नहीं देता, न किसी को मारता है, न किसी को मारने की प्रेरणा देता है उसी को मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
(6) अगर कोई सांप जहरीला नहीं हो तो भी उसे फ़ूफ़कारते रहना चाहिये। आदमी कमजोर हो तो भी उसे अपनी कमजोरी का प्रदर्शन नहीं करना चाहिये
(7) व्यक्ति को जरूरत से ज्यादा ईमानदार नहीं होना चाहिये। सीधे तने के पेड सबसे पहिले काटे जाते हैं। ईमानदार आदमी को मुश्किलों में फ़ंसाया जाता है।
(8) सबसे बडा मंत्र है कि अपने मन की बात और भेद दूसरे को न बताओ। अन्यथा विनाशकारी परिणाम होंगे।
(9) जो व्यक्ति अच्छा मित्र न हो उस पर विश्वास मत करो लेकिन अच्छे मित्र पर भी पूरा भरोसा नहीं करना चाहिये क्योंकि कभी वह नाराज हो गया तो आपके सारे भेद खोल सकता है ।इसलिये हर हालत में सावधानी बरतना आवश्यक है।
(10) मित्रता बराबरी वाले व्यक्तियों में करना ठीक होता है। सरकारी नौकरी सर्वोत्तम होती है।अच्छे व्यापार के लिये व्यवहार कुशलता आवश्यक है।सुन्दर और सुशील स्त्री घर में ही शोभा देती है।
(11) वे माता-पिता अपने बच्चों के लिये शत्रु के समान हैं,जिन्होने बच्चों को अच्छी शिक्छा नहीं दी। क्योंकि अनपढ बालक का विद्वानों के समूह में उसी प्रकार अपमान होता है जैसे हंसों के समूह में बगुले की स्थिति होती है। शिक्छा विहीन मनुष्य बिना पूंछ के जानवर जानवर जैसा होता है।
(12) जो मित्र आपके सामने चिकनी-चुपडी बातें करता हो और पीठ पीछे आपके काम बिगाड देता हो उसे त्यागने में ही भलाई है।वह उस बर्तन के समान है जिसके बाहरी हिस्से पर दूध लगा हो लेकिन अंदर विष भरा हो।
(13) संत्तोष नंदन वन के समान है। मनुष्य इसे अपने में स्थापित करले तो उसे वही शांति मिलेगी जो नंदन वन में रहने से मिलती है।
(14) हजारों गायों की बीच जिस तरह बछड़ा अपनी मा के पास जाता है वैसे ही मनुष्य का कर्म भी उसी में पाया जाता है जो कर्ता है। कर्ता अपने कर्म का फल भोगे बिना कैसे रह सकता है।
(15) गयी हुई संपत्ति, छोड कर गयी पत्नी, छीन गयी भूमि वापस मिल सकती है पर एक बार शरीर गया तो फिर वापस नहीं मिल सकता, अत:उसकी रक्षा करते हुए सदुपयोग करो।
(16) एकता में ही भारी शक्ति है। बिखरे हुए हजारों तिनकों को हाथी अपने पैर तले रौंद डालता है पर वह ढाका बनकर उस पर नियन्त्रण करते हैं और उसे अपने इशारों पर चलने कि लिए बाध्य करते हैं। वेग की तलवार की धार भी वर्षां वाले मेघ तृण समूह को काट नहीं सकते।
(17)मूर्खों ने ही पाषाण के टुकड़ों को रत्न मान लिया है। वास्तविक रत्न तो अन्न, जल और प्रिय वचन है। इन तीनों रत्नों से अधिक कोई मूल्यवान रत्न नहीं है।
(18) जो नीच प्रवृति के लोग दूसरों के हृदय को चोट पहुँचाते है और अपनी वाणी से कटु वचन बोलते हैं,दूसरो की बुराई कर प्रसन्न होते है, वह कभी-कभी अपने विषैले और कटु वचनों से अपने को भी घायल कर बैठते हैं। अपने वचनों द्वारा बिछाये जाल में स्वयं भी घिर जाते हैं और उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जैसे रेत के टीले को बांबी समझकर सांप उसमें घुस जाता है और फिर निकल नहीं पाता और दम घुटने से उसकी मौत हो जाती है।
(19)समर्थ पुरुष के लिए अयोग्य वस्तु भी आभूषण के रुप में होती है जबकि नीच के लिए योग्य भी अनुपयोगी और दोषयुक्त हो जाती है। देवताओं को अजर-और अमर बनाने वाला अमृत राहू के लिए प्राणघातक सिद्ध हुआ। वही प्राणघातक विष भगवान् शिव के लिए आभूषण बन गया।
(20) काम क्रोध और लोभ ये तीनो नरक के द्वार हैं--गीता
(21) दुष्ट के साथ दुष्टता का ही व्यवहार करना चाहिये।
(22) जिस देश में सम्मान न हो, जहां कोई आजीविका न मिले, जहां अपना कोई भाई-बन्धु न रहता हो और जहां विद्या-अध्ययन सम्भव न हो, ऐसे स्थान पर नहीं रहना चाहिए।
(23) बुरा समय आने पर व्यक्ति का सब कुछ नष्ट हो सकता है। लक्ष्मी स्वभाव से ही चंचल होती है। इसका कोई भरोसा नहीं कि कब साथ छोड़ जाये। इसलिए धनवान व्यक्ति को भी यह नहीं समझना चाहिए कि उस पर विपत्ति आएगी ही नहीं। दु:ख के समय के लिए कुछ धन अवश्य बचाकर रखना चाहिए।
(24) आपत्ति काल के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए लेकिन धनवान को आपत्ति क्या करेगी अर्थात् धनवान पर आपत्ति आती ही कहाँ है ? तो प्रश्न उठा कि लक्ष्मी तो चंचल होती है, पता नहीं कब नष्ट हो जाए तो फिर यदि ऐसा है तो कदाचित् संचित धन भी नष्ट हो सकता है।
(25) दुष्ट के सारे शरीर में विष होता है।
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