गंगा बहे नयनो से, प्यास न बुझे फिर भी मगर
हाथ उठा के हम पुकारें, पर न देखे कोई नज़र
इन्सां को इन्सां कहूं, या फिर कहूं मैं जानवर
यूं ही कवितायें बनेंगी, लोग पढ़ भी लेंगे मगर
कोई मतलब इनका नहीं, चेतना न जागे अगर
आओ ऐसा गीत लिखें, गुनगुनाएं जिसको सभी
लाश में भी प्राण फूंके, वो गीत गायें हम अगर
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