जो हमारा दिल को जान सके,
चल रहा हो हम तेज़ बेरिश मे,
फिर भी पानी मे से आँसुओ को पहचान सके!!!!
होशवालों को खबर क्या बेखुदी क्या चीज़ है, ईश्क कीजे फिर समझीये ज़िंदगी क्या चीज़ है, उनसे नज़रें क्या मिली रोशन फिझाएं हो गई, आज जाना प्यार की जादुगरी क्या चीज़ है, ईश्क कीजे फिर समझीये ज़िंदगी क्या चीज़ है, खुलती ज़ुल्फों ने सिखाई मौसमों को शायरी, ज़ुकती आंखों ने बताया मयकशी क्या चीज़ है, ईश्क कीजे फिर समझीये ज़िंदगी क्या चीज़ है,
पहले मै इस बात को कभी इतने दिल से महसूस नहीं करता था , पर आज दिल्ली जैसे महानगर की भागदौड़ वाली ज़िन्दगी में आकर इस बात को कहने को मजबूर हो गया हूँ ….. वो गाँव की सुकून भरी ज़िन्दगी ……उफ़ उन पलो को याद करते ही कितनी ख़ुशी मिल रही है … …………लेकिन दिल में आज भी गाँव में बिताये हुए दिनों की याद ताज़ा है ……….……वो रातो में दिए के उजाले में रहना …वो मंद मंद मुस्काती रौशनी …………और …..फिर वो चाहे गर्मी की जलती हुई दोपहर ही क्यों न हो हर वक़्त बस खेलना घूमना ………..और खाना ………..क्या गर्मी क्या धुप कोई भी बात हमारे खेल कूद में अंकुश नहीं लगा पाती थी…हमारा गाँव का घर बहुत बड़ा है ………और उसका आँगन और भी बड़ा …..आँगन के बीच में छोटा सा मंदीर बना हुआ है और उसी मंदीर से सटा हुआ तुलसी का पेड़ ……….उस तुलसी की पत्तिया आज भी मन में बसी हुई है ………उस वक़्त गाँव में न तो कूलर न ही ए. सी., रात को आँगन में एक लाइन से चारपाई लग जाती थी और वहीँ पर सारे लोग सोते थे …….. फिर रात के आठ बजते ही हम सारे बच्चे चारपाई में नानी को घेर लेते थे फिर वो हमें या तो कहानी सुनाया करती थी या फिर पहेलियाँ बूझा करती थी , कभी अपने जमाने की बाते भी बताने लगती थी ………और मेरे बाबा कभी कभी चुड़ैल और भूतो की कहानी कह कर हमें डराने लगते थे ,जिसे वो सत्य घटना बताया करते थे , जैसे की फलां आम के पेड़ में चुडेल है बगीचे के बरगद के पेड़ में चुडेल रहती है , वगैरह वगैरह ……..ये सब सुनते सुनते रात हम सो जाते थे . और फिर चिडियों की चहचाहाहट से नींद खुलती थी लेकिन फिर भी उठते नहीं थे जब तक नानी चिल्ला चिल्ला कर थक नहीं जाती थी ….फिर आंगन के हैण्ड पम्प में जाकर मंजन होता था लाल दन्त मंजन ……..दादी और दादा तो नीम की दातौन करती है जिसकी वजह से आज भी उनके दांत सही है और हमें हर छः महीने में दातो के डाक्टर के पास जाना पड़ता है…….उसके बाद हम लोग बतियाते हुए दुआरे(घर के बाहर) बैठे रहते थे , ……….,और फिर दादी या मम्मी कुछ खाने के लिए देती थी .………और उसके बाद मंदिर के उत्तर वाले बागीचे में पहुँच जाते थे आम खाने……गाँव के घर में कई कमरों के नाम दिशाओं के हिसाब से बोले जाते थे जैसे दक्षिण दिशा में दो कमरे थे जिनमे अनाज वगैरह रखा जाता था उसे दक्खिन घर और एक पश्चिम घर था जिसमे मम्मा(दादी) घी, दूध,मट्ठा, अचार, और मिठाई वगैरह रखती थी पर उसमे जाने की मनाही थी वो ही निकाल के दे सकती थी किसी को भी इजाज़त नहीं थी उनके पश्चिम घर में जाने की……….इन कमरों के बारे में बताते बताते मुख्य बात तो रह गयी …आमो की बात …..उफ़ वो रसीले मीठे आम ….और सबसे बड़ी बात, कितने सारे आम कितने भी खाओ कोई गिनती नहीं, कोई चिंता नहीं….. ……सुबह भी आम खाते थे फिर पूरी दोपहर आम खाते थे . ….एक बार में चार पांच आम तो खा ही लेते थे …..अब वो आम खाने में कहाँ मज़ा आता है एक तो इतने महंगे है आम ……और फिर कैसे भी करके खरीदो तो वो गाँव के आमो जैसा स्वाद उनमे कहाँ आता है …….और अमावट जिसे शहर की भाषा में आम पापड कहते है उसका स्वाद भी कहाँ दुकानों से ख़रीदे आम पापड़ में आता है ……… इन दुकानों की चका चौंध में दिखावे में हर चीज़ का स्वाद गुम होता जा रहा है……बस दिखाई देता है चमकते हुए कागजों में बंद सामान जिसमे सब कुछ बनावटी …स्वाद भी ………… हमने तो फिर भी कुछ असली चीजों का स्वाद चखा है ……लेकिन हमसे आगे आने वाली पीढ़ी तो पिज्जा बर्गर में ही गुम होकर रह जाएगी क्या उन्हें कभी हमारी देसी चीजों का स्वाद पता चल जाएगा ……….फिशर प्राइज़ के खिलोने क्या कभी अपने खुद के हाथो से बने मीट्टी के खिलोनो का मुकाबला कर पायेंगे …………जिस गाय के गोबर से हमारे गाँव के घरो को लिपा जाता था उसी गाय के गोबर को देखते ही आज की पीढ़ी मुह बना कर नाक बंद कर लेती है….. हम लोग निम् के पेड़ की सबसे ऊँची डाल पर झूला बाँध कर झूलते थे, गाँव के तालाब के किनारे और खेतो में दौड़ दौड़ कर जो खेल खेला करते थे उन खेलो का, बंद कमरों में बैठ कर कम्पूटर के सामने खेले जाने वाले खेलो से क्या कोई मुकाबला है …….पर क्या इसमें आज की पीढ़ी की गलती है नहीं इसमें गलती तो हमारी है ……….उनकी छुट्टिया होते ही हम उन्हें समर कैंप में भेज देते है या फिर किसी हिल स्टेशन में घुमाने लेकर चले जाते है ……….क्योंकि अब हम खुद ही बिना सुविधाओं के नहीं रह पाते है ……… …….जबकि गाँव जाकर हम वो सीख सकते है जो हमें कोई समर केम्प नहीं सीखा सकता ………….. सादगी, भोलापन , बड़ो का सम्मान, अपनों से प्यार, प्रकृति से लगाव ये सब हम वहाँ से सीख सकते है……….गाँव में बीताये हुए वो बचपन की यादे अभी भी मेरे ज़ेहन में यं ताज़ा है जैसे कल ही की बात हो ………चूल्हे में बने हुए खाने का स्वाद , वो कुँए का मीठा पानी सब कुछ मन में बसा हुआ है ………..
आज भी जब जगजीत सिंह की इस ग़ज़ल को सुनता हूँ तो आँखे नम हो जाती है …..“ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो, भले छिन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लुटा दो वो बचपन का सावन, वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी……….कड़ी धुप में अपने घर से निकलना, वो चिड़िया वो बुलबुल वो तितली पकड़ना, वो गुडिया की शादी में लड़ना झगड़ना, वो झूलो से गिरना वो गिर कर संभलना, ना दुनिया का ग़म था न रिश्तों का बंधन, बड़ी खूबसूरत थी वो जिंदगानी…….. सच बड़ी खूबसूरत थी वो जिंदगानी
दर्द कैसा भी हो आंख नम न करो
रात काली सही कोई गम न करो
एक सितारा बनो जगमगाते रहो
ज़िन्दगी में सदा मुस्कुराते रहो
बांटनी है अगर बाँट लो हर ख़ुशी
गम न ज़ाहिर करो तुम किसी पर कभी
दिल कि गहराई में गम छुपाते रहो
ज़िन्दगी में सदा मुस्कुराते रहो
अश्क अनमोल है खो न देना कहीं
इनकी हर बूँद है मोतियों से हसीं
इनको हर आंख से तुम चुराते रहो
ज़िन्दगी में सदा मुस्कुराते रहो...
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